कोलार गोल्ड फील्ड यानी भारत का सवचे प्राचीनतम स्वर्ण भण्डार हैं. इन्हें क्षेत्र कहा जाता है, मा! केजीएफ शहर के बीचों-बीच स्थित कई टीलों में से एक – शाम के सूरज में मधुर सोने की चमक है। आज भी लोग सोने की उम्मीद में खदानों के पास मिट्टी पत्थर खुदाई करते हैं । कोलार गोल्ड फील्ड काम अक्षरों कहे यानी KGF, इस सुपरहिट मूवी आप जरूर देखे होंगे यह मूवी में कोलार गोल्ड फील्ड से जुड़े कहानी बताए गए हैं । इस पेज में जानेंगे कोलार गोल्ड फील्ड से दिलचस्प स्टोरी जिन्हें आप जानकर हैरान हो जाएंगे
KGF यानी कोलार कहां स्थित है ( Kolar Gold Fields)
कर्नाटक राज्य बैंगलोर से लगभग एक सो किलोमीटर दूर कोलार गोल्ड फील्ड स्वर्ण क्षेत्र स्थित है जो भारत के सबसे पुराना सोना का भंडार है ,इतनी पुरानी है सिंधु घाटी सभ्यता से लेकर ब्रिटिश हुकूमत फिर आजाद भारत को भरपूर सोना देती रही है। यहां से 1880 से लेकर 2001 के बीच यानी 121 साल में लगभग 108 टन सोना निकाला जा चुका है।
Kolar Gold Fields owner – केजीएफ के शासक
Kolar Gold Field ने बहुत से शासक देखिए है ऐतिहासिक उल्लेख बताए गए हैं यहां प्रथम शताब्दी ईस्वी से अलग-अलग समय में स्वर्ण की खुदाई होती रही है, जिनमे पहले गंगास , फिर 900 ईस्वी से 1000 ईस्वी के बीच चोला साम्राज्य , 13 ईस्वी से 16 शताब्दी तक विजयनगर साम्राज्य।16वीं सदी में विजयनगर साम्राज्य से लेकर 18वीं सदी के उत्तरार्द्ध में मैसूर के राजा टीपू सुलतान के काल तक की अवधि सम्मिलित हैं। फिर मराठा से लेकर हैदराबाद निजाम और वेदर अली शासक सम्मिलित हैं। उसके बाद अंग्रेज शासक ने कोलार गोल्ड खेल फील्ड से सोना निकाला है, सदियों से से KGF से दक्षिण भारत के शासकों को भारी मात्रा में धन की प्राप्ति हुई है
भारत के सबसे गहरा खदान मे से एक है, जहां 1980 से 1990 दशकों में धरती की सतह से 3 किलोमीटर नीचे खुदाई होती थी. केवल दक्षिण अफ्रीका के कुछ खदान इससे ज्यादा गहरे हैं. 19वीं सदी के अंतिम वर्षों में ब्रिटिश खनन कम्पनी जॉन टेलर ने खुदाई कार्य का जिम्मा लिया और बड़ी-बड़ी मशीनें लगाई गई मशीन को चलाने के लिए बिजली की आवश्यकता परी , और 1902 दो शतकों में बिजली आ गई। तब सिर्फ एशिया जापान टुकी शहरों में बिजली हुआ करते थे, यह भारत का सबसे पहला और सबसे पुराना हाइड्रो इलेक्ट्रिक प्लांट है। जिसका नाम काबरी इलेक्ट्रिक प्लांट रखा गया।
जब इस प्लांट से बिजली के उत्पन्न होना शुरू हुआ तब जरूरत से ज्यादा बिजली उत्पन्न होती थी इसलिए इसको आसपास शहरों में बिजली दे दिया गया ,और यह देश के पहला शहर बना जहां बिजली मिली
इतनी अधिक गहराई में खुदाई के लिए विशेष उपकरण की आवश्यकता होती है. इसलिए केजीएफ़ ने 1940 के दशक में मैनचेस्टर, इंग्लैंड में बना विश्व का सबसे बड़ा ड्रम लगाया.उस समय दक्षिण भारत के अधिकाँश हिस्सों में बिजली उपलब्ध नहीं थी. वह कंपनी बड़े गर्व के साथ दावा करती थी कि आप धरती में एक किलोमीटर गहराई से सीधे जॉन टेलर के लन्दन कार्यालय से बात कर सकते हैं.
जॉन टेलर ग्रुप द्वारा प्रतिष्ठापित अधिकाँश मशीनें 1990 के दशक तक काम कर रही थीं, हालांकि, वे 50 से 100 साल पुरानी थीं. वह एक तरह से मूल विनिर्माताओं और भारत माइंस के निरंतर उत्कृष्ट रख-रखाव, दोनों के प्रति सम्मान का प्रदर्शन था.
क्यों litle England नाम रखा गया
ब्रिटिश शासन में यहा बहुत सारा ब्रिटिश रहा करते थे। इसीलिए इसको litle England कहा जाता था, क्योंकि यहां के रहन सोहन घर और वातावरण इंग्लैंड से मिलता जुलता था
भारत आजादी के बाद 1956 में इन खदानों को राष्ट्रीय कर दिया गया 1970 में BGML यानी (भारत गोल्ड माइन लिमिटेड, ) इन खदानों को निरंतर अपने हाथों में ले लिया, लेकिन शुरुआत में सफलता पाने के बाद भारी रकम स्टाफ सहित कई कारणों के चलते कंपनी को फायदा दिन यह घटता चला गया और 1979 आते स्तिथि ऐसा हो गया कंपनी सहित कर्ज़ का इस तरह डाउन हो गया जैसे अपना स्टाफ को तनख्वाह देना कठिन हो गया था
बाद में इसे बीमारी घोषित कर दिया और ,स्टाफ को 8800 से3500 कर दिया, आधुनिक खुदाई का काल 1880 से 2001, 120 वर्षों तक रहा. 2001 में सरकारी कम्पनी, भारत गोल्ड माइंस लिमिटेड ने परिचालन बंद कर दिया, क्योंकि प्रति वर्ष खुदाई से प्राप्त स्वर्ण का मूल्य किसी भी रूप में परिचालन लागत के बराबर भी नहीं हो रहा था. किन्तु केजीएफ़ का अस्तित्व अभी समाप्त नहीं हुआ है.
यह हजारे एकार में फैला हुआ कोलार गोल्ड माइन अभी भुतहा कस्बे जैसा हो गया है
2016 में नरेंद्र मोदी सरकार ने केजीएफ नीलामी की घोषणा की इसलिए लगता है कि दक्षिण भारत विद्युत शहर जो अभी भुतहा शहर को शक्ल में है इसको भाग्य दोबारा पुनः खुल सकता है. माना जाता है कि कोलार में अभी भारी मात्रा में सोना है, तब सोना के कीमत से 5 गुना मूल्य हो चुका है। इन खदानों को खुलना बहुत एहम बात है, हम है देश में लगातार सोना का मांग पूरा हो सकता है।
खुदाई से निकले मलबे में 30 मीटर मलबा हिल बन गया है यह गठन पर की थी कारण इस पर पौधा नहीं उग रहा है यह पहाड़ी मधुर और लौभानी दृश्य प्रदान करती है इस खदान के कुछ दूरी पर भोलानाथ का विशाल शिवलिंग है इसके चारों ओर एक करोड़ शिव शिवलिंग मौजूद है, और यहां पर रोज हजारों भक्तों दर्शन करने आते हैं
कोलार के – सोने की नगरी क्यों काहा जाता है
बंगलुरु से पूर्व की तरफ़, क़रीब सौ कि.मी. दूर जायेगे तो वहां फाएंगे एक ऐसा इलाक़ा जो कभी ‘लिटिल इंग्लैंड’ के नाम से जाना जाता था।यहां कभी अंग्रेज़ों का बसाया गया गहमागहमी वाला शहर हुआ करता था। इलाक़े के नाम भी अंग्रेज़ी में थे जैसे रॉबर्टसनपेट और एंडरसनपेट। यहां गोल्फ़ कोर्स और स्विमिंगपूल वाले सोशल क्लब भी हुआ करते थे। इसके अलावा विश्व प्रसिद्ध अस्पताल, स्कूल और सिनेमाघर होते थे। 20वीं शताब्दी में ये तमाम-झाम सोने के व्यापार के बिना नहीं था संभाव नहीं हो सकता था। सच्चाई भी यही थी।
जिस स्थान की बात हो रही है वो मशहूर कोलार गोल्ड फ़ील्ड्स हैं,जिन्हें के.जी.एफ. के नाम से भी भी जाना जाता है। यहां कभी देश का 95% प्रतिशत सोने का उत्पादन होता था। तो पेश है कोलार गोल्ड फ़ील्ड्स का दिलचस्प क़िस्सा।
कोलार 19वीं शताब्दी में सुर्ख़ियों में आया जब यहां सोने की खानें मिलीं लेकिन शायद बहुत कम लोगों को पता होगा कि इसका इतिहास 1700 साल पुराना है।
350-1000 ई. के दौरान कर्नाटक पर गंगा वंश का शासन था और तब कोलार उनकी राजधानी हुआ करती थी। राजा इस जगह से जाने के बाद भी अपने साथ ‘कुवालाला-पुरारेश्वर (कोलार के भगवान) का ख़िताब ले गये। सन 1004 में कोलार पर चोल वंश का शासन हो गया। रिकॉर्ड से पता चलता है कि कोलार सोने की खान से निकाला गया सोना चोल राजवंश के प्रसिद्ध बंदरगाह पूमपुहार लाया जाता था जहां से उसे मदुरई के व्यापारियों और दूसरे देशों को बेचा जाता था।
अंग्रेज़ों के आने के पहले खान से जितना भी सोना निकाला गया था वो अर्धविकसित था। लोगों के छोटे छोटे समूह लोहे के औज़ारों और तेल के दिये की मदद से सोने की सतह को खुरचते थे। लेकिन अंग्रेज़ सेना के अधिकारी जॉन वॉरन की इस पर नज़र पड़ गई और उसे खान का महत्व समझ आ गया।
सन 1799 में श्रीगंगापट्टनम में अंग्रेज़ों के हाथों टीपू सुल्तान के मारे जाने के बाद अंग्रेज़ों ने टीपू के इलाक़े, मौसूर रियासत को सौंपने का फ़ैसला किया। लेकिन इसेक लिये ज़मीन का सर्वे ज़रुरी था। वॉरन तब पैदल सेना की 33वीं बटालियन का कमांडर था इस काम के लिये उसे कोलार बुलाया गया। वॉरन ने सन 1802 में मैसूर रियासत के सीमांकन का काम शुरु किया। उसे स्थानीय खानों में हो रही गतिविधियों को देखकर हैरानी हुई। जांच पड़ताल के बाद वह इस नतीजे पर पहुंचा कि गांव वालों जिस तरीक़े से सोना निकाल रहे थे उससे हर 56 किलो मिट्टी में से एक रत्ती सोना निकाल रहा था। उसने सोचा कि अगर इस काम में पेशेवर लोगों को लगा दिया जाय तो काफ़ी मात्रा में सोना निकल सकता है।
तब से छह दशकों तक कई लोगों (ईस्ट इंडिया कंपनी सहित) ने सोना खोजने में अपनी क़िस्मत आज़माई। तरह तरह की खोज की गईं और अध्ययन किये गये लेकिन किसी को भी सोने का बड़ा ज़ख़ीरा नहीं मिल पाया। इस स्थिति में सन 1871 में बदलाव आया। अंग्रेज़ सेना से रिटायर हुए आयरलैंड के माइकल फिट्ज़गैराल्ड लैवले ने बैंगलोर छावनी को अपना घर बना लिया था। वह न्यूज़ीलैंड में माओरी युद्ध से लौटा ही था जहां उसकी दिलचस्पी खानों में हो गई थी।जॉन वॉरन की पुरानी रिपोर्ट पढ़कर उसकी दिलचस्पी जाग गई और वह बैलगाड़ी से सौ कि.मी. लंबा सफ़र तय करके कोलार पहुंच गया।
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