विज्ञापनों के सहारे आपको लुभा रहे टूथपेस्ट (दंत मंजन) दांतों को नुकसान भी पहुंचा सकते हैं। इन टूथपेस्ट में दांतों की सुरक्षा के लिए मिलाया जाने वाला कैल्शियम कार्बोनेट ही उनके लिए नुकसानदेह साबित हो रहा है। दाम कम करने की होड़ में टूथपेस्ट की गुणवत्ता के हिसाब से कैल्शियम कार्बोनेट का इस्तेमाल नहीं किया जा रहा है। ये जानकारी बीएचयू फैकल्टी ऑफ डेंटल साइंसेज के डीन डॉ. टीपी चतुर्वेदी ने दी। मौका था रविवार को इंडियन डेंटल एसोसिएशन (आईडीए) द्वारा केजीएमयू के पीएचआई भवन में आयोजित सतत दंत चिकित्सा शिक्षा कार्यक्रम का।

डॉ. चतुर्वेदी ने बताया कि कैल्शियम कार्बोनेट का इस्तेमाल टूथपेस्ट में दांतों की सफाई के लिए किया जाता है। उसकी मात्रा 20 से 50 फीसदी होती है। सबसे अच्छी क्वालिटी का कैल्शियम कार्बोनेट गोल आकार में होता है। इसे ही टूथपेस्ट में इस्तेमाल किया जाना चाहिए, लेकिन टूथपेस्ट बनाने वाली कंपनियां लापरवाही बरतते हुए दोयम दर्जे का कैल्शियम कार्बोनेट इस्तेमाल कर रही हैं। इनका आकार नुकीला, टेढ़ा-मेढ़ा या फिर खुरदुरा होता है। इसके चलते ये दांतों के एनामेल को नुकसान पहुंचाते हैं। इसलिए टूथपेस्ट का चयन दंत चिकित्सक की सलाह से करना चाहिए।


इस मौके पर डॉ. चतुर्वेदी ने टेढ़े-मेढ़े दांतों को सही करने की नई तकनीकों की जानकारी भी दी। उन्होंने बताया कि दंत विशेषज्ञों की भूमिका अब सिर्फ टेढ़े-मेढ़े दांतों को ही ठीक करने तक नहीं रह गई है। दांतों को मरीज के चेहरे की सुंदरता के अनुसार सेट किया जाना चाहिए। इसमें मरीज के होंठ, चेहरा, ऊपर और नीचे के जबड़े की स्थिति भी देखी जा सकती है। इस तकनीक को ‘सॉफ्ट टिश्यू कॉन्सेप्ट’ नाम दिया गया है। उन्होंने बताया कि जिन लोगों के आगे के दांत टेढ़े-मेढ़े और उभरे हुए होते हैं, उनमें पहले दाढ़ (मोलर) को पीछे किया जाता है। इसके बाद आगे के दांतों को चेहरे की सुंदरता के हिसाब से सेट कर दिया जाता है। इस पूरी प्रक्रिया में एक से डेढ़ साल लगता है, लेकिन दांतों का आकार बिल्कुल ठीक हो जाता है। आईडीए की सचिव डॉ. प्रोमिला वर्मा ने बताया कि पहले दांतों को सीधा करने के लिए तारों का प्रयोग बाहर से किया जाता था। अब अंदर से तार लगाए जाते हैं। इससे बातचीत करते समय मरीज को दिक्कत नहीं होती और उसे बार-बार लोगों की पूछताछ का जवाब भी नहीं देना पड़ता है। डॉ. वर्मा ने बताया कि ‘माइक्रो इम्पलांट’ से दांतों को ठीक किया जाता है। इसमें टाइटेनियम के स्क्रू इस्तेमाल किए जाते हैं, जिन्हें सीधे हड्डी में जोड़ देते हैं। पहले हेड गियर और कई अन्य उपकरणों का सहारा लेना पड़ता था।
इस मौके पर केजीएमयू की ऑपरेटिव डेंटिस्ट्री विभाग के प्रो. अनिल चंद्रा, प्रो. आरके यादव, सरदार पटेल डेंटल साइंसेज के पेरियोडॉन्टिक्स एंड इम्प्लांटोलॉजी विभाग के डॉ. केके गुप्ता और छात्र-छात्राएं भी मौजूद थे।
प्रदेश में स्किन बैंक की जरूरत प्रदेश में स्किन बैंक की बहुत जरूरत है। 60 प्रतिशत से अधिक जले मरीजों को त्वचा प्रत्यारोपण कर बचाया जा सकता है। स्किन बैंक में ब्रेन डेड (कैडवर) व्यक्ति की स्किन को 4 से 8 डिग्री सेल्सियस पर पांच साल तक रखा जा सकता है। इस त्वचा को बहुत अधिक जल गए मरीजों के इलाज में इस्तेमाल किया जा सकता है। इसके अलावा छोटे बच्चों या वृद्धों, जिनमें 20 फीसदी बर्न भी जानलेवा साबित होता है, त्वचा प्रत्यारोपण कारगर है। यदि जले हुए हिस्से पर त्वचा का प्रत्यारोपण कर दिया जाए तो वो किसी भी ड्रेसिंग से ज्यादा असरकारक है। इससे मरीज में संक्रमण फैलने की संभावना भी कम हो जाती है। यही नहीं, घावों से पानी बहना आदि समस्या से भी निजात मिल जाती है। इससे घाव जल्दी भरने लगते हैं। तीन माह बाद मरीज की स्वयं की त्वचा विकसित हो जाती है तो प्रत्यारोपित त्वचा स्वत: हट जाती है। उन्होंने बताया कि देश का एकमात्र स्किन बैंक नवी मुंबई में है।
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