धर्म का ऐसा योद्धा जिसने धर्म परिवर्तन करने से बेहतर समझा अपना सिर कटाना

आज गुरु तेग बहादुर सिंह के शहीदी दिवस के उपलक्ष्य में हम आपको उनके बलिदान की कहानी बी बता रहे हैं।

                        

इंदौर. सिखों के नौवें गुरु श्री तेग बहादुर साहिब के शहीदी दिवस पर विभिन्न गुरुद्वारों से अलग-अलग प्रभातफेरियां नंदानगर स्थित गुरु तेग बहादुर साहिब गुरुद्वारा पहुंची, जहां उनका स्वागत किया गया। तीन दिन तक विशेष दीवान सजाए गए। नंदानगर गुरुद्वारा प्रबंध कमेटी के अध्यक्ष जोगेंद्रसिंह सैनी और सचिव दलजीतसिंह सोढ़ी ने बताया कि विभिन्न गुरुद्वारों से प्रभातफेरियां सुबह नंदानगर पहुंची। आज गुरु तेग बहादुर सिंह के शहीदी दिवस के उपलक्ष्य में हम आपको उनके बलिदान की कहानी बी बता रहे हैं।
                              

गुरु तेग़ बहादुर सिंह

सिखों के नौवें गुरु तेग़ बहादुर सिंह जिनका शहीद दिवस पूरे शहर में मनाया जाएगा। गुरु तेग बहादुर सिंह का जन्म पंजाब के अमृतसर शहर में 18 अप्रैल, 1621 ईसा पूर्व में हुआ था यह गुरु हरगोविंद के पांचवे पुत्र थे, उसके बाद उनकी मृत्यु 24 नवम्बर, 1675 ईसा पूर्व में हुई थी। बचपन में गुरु तेग बहादुर सिंह का नाम त्यागमल था। 14 वर्ष की उम्र में उन्होंने में अपने पिता के साथ मुग़लों के हमले के खिलाफ युद्ध में शामिल हुए थे। उनकी इसी वीरता को देखते हुए उनके पिता ने उनका नाम त्यागमल से बदलकर तेग बहादुर यानी की जो तलवार का धनी हो नाम रख दिया। पूरी दुनियर में केवल यही वो गुरु थे जिन्होंने इस्लाम को ना मानने और धर्म और सिद्धांतों की रक्षा के लिए अपना सिर कटाना मंजूर किया पर इस्लाम के आगे नहीं झुके। पूरी दुनिया में उन्हें अपने इस बलिदान के लिण् जाना जाता है। उनके इस त्याग सेे हिंदु धर्म की रक्षा हुई वरना आज पूरे भारत देश में कोई भी हिंदू धर्म को नहीं मान पाता। माना की गुरु तेग बहादुर सिंह सिख थे परन्तु उन्हें हिन्दू धर्म के लोग भी उन्हें याद करते और उनके संबंधित कार्यक्रमों का आयोजन भी किया जाता है। १६६४ में गुरु तेग बहादुर सिंह को सिख समाज ने गुरु की उपाधि प्रदान की थी।
जब वे युद्ध में थे तभी उन्हें वहां बहते रक्त को देखा और यह वही रक्त था जो लोग उनके साथ युद्ध में शामिल थे। यह देखकर गुरु कामन आघात हुआ इसके बाद में धर्म और आध्यात्मिक चिंतन की ओर बढ़ चले। २० वर्ष तक गुरु धैर्य, वैराग्य और त्याग की मूर्ति बनने के लिए वे एकांत में 'बाबा बकाला' नामक स्थान पर साधना करते रहे। इसके बाद में धर्म प्रसार के लिए वे कई स्थानों का भ्रमण करते रहे। आनंदपुर साहब से कीरतपुर, रोपण, सैफाबाद होते हुए वे खिआला (खदल) पहुंचे। यहां उपदेश देते हुए दमदमा साहब से होते हुए कुरुक्षेत्र पहुंचे। कुरुक्षेत्र से यमुना के किनारे होते हुए कड़ामानकपुर पहुंचे और यहीं पर उन्होंने साधु भाई मलूकदास का उद्धार किया।
इसके बाद गुरु तेग बहादुर जी प्रयाग, बनारस, पटना, असम आदि क्षेत्रों में गए, जहां उन्होंने आध्यात्मिक, सामाजिक, आर्थिक, उन्नयन के लिए रचनात्मक कार्य किए। इन्हीं यात्राओं में 1666 में गुरुजी के यहाँ पटना साहब में पुत्र का जन्म हुआ। जो दसवें गुरु- गुरु गोविंद सिंह बने।
                         
बलिदान की कहानी
सिखों के नौंवे गुरु तेग बहादुर जी के बलिदान की कहानी में बहुत ही प्रसिद्ध है। यह बलिदान औरंगजेब के शासन काल में हुआ था। बात यह थी कि औरंगजेब के दरबार में एक विद्वान् पंडित आकर रोज गीता के श्लोक पढ़ता और उसका अर्थ सुनाता था, पर वह पंडित गीता में से कुछ श्लोक छोड़ दिया करता था जिसमें सब धर्म को बराबर मानने की सीख थी। एक दिन पंडित बीमार हो गया और औरंगज़ेब को गीता सुनाने के लिए उसने अपने बेटे को भेज दिया परन्तु उसे बताना भूल गया कि उसे किन किन श्लोकों का अर्थ राजा से सामने नहीं पढऩा है। पंडित के बेटे ने जाकर औरंगज़ेब को पूरी गीता का अर्थ सुना दिया। गीता का पूरा अर्थ सुनकर औरंगज़ेब को दिमाग में आया कि उसके धर्म से बड़ा भला कोई और धर्म कैसे हो सकता है। उसने बड़ा ही बुरा फैसला कर लिया, औरंगजेब ने सबको इस्लाम धर्म अपनाने का आदेश दे दिया और संबंधित अधिकारी को यह कार्य सौंप दिया। औरंगजेब ने कहा -'सबसे कह दो या तो इस्लाम धर्म कबूल करें या मौत को गले लगा लें।'
ऐसे अत्याचारों से परेशान होकर कश्मीर के पंडित गुरु तेग बहादुर के पास आए और उन्हें अपने पर हो रहे इस अत्याचार की कहानी सुनाई। और हाथ जोड़ कहा कि आप हमारे धर्म को बचाइए। गुरु तेग बहादुर जब लोगों की व्यथा सुन रहे थे, उनके 9 वर्षीय पुत्र बाला प्रीतम (गुरु गोविंदसिंह) वहां आए और उन्होंने पिताजी से पूछा- 'पिताजी, ये सब इतने उदास क्यों हैं? आप क्या सोच रहे हैं?' बच्चे की बात सुन पिता ने सारी बात बताई। प्रीतम ने फिर सवाल किया- 'इसका हल कैसे होगा?'
गुरु साहिब ने कहा- 'इसके लिए बलिदान देना होगा।'
यह बात सुन प्रीतम ने कहा-' आपसे महान् पुरुष कोई नहीं है। बलिदान देकर आप इन सबके धर्म को बचाइए।'
उस बच्चे की बातें सुनकर वहां उपस्थित लोग चौंक गए और कहने लगे कि यदि आपके पिता बलिदान देंगे तो आप यतीम हो जाएंगे, आपकी मां विधवा हो जाएगीं।'
बात को सुनकर बाला प्रीतम ने जवाब दिया- 'यदि मेरे अकेले के यतीम होने से लाखों बच्चे यतीम होने से बच सकते हैं या अकेले मेरी माता के विधवा होने जाने से लाखों माताएं विधवा होने से बच सकती है तो मुझे यह स्वीकार है।'
अपने पुत्र की इस बात से प्रेरित होकर गुरु तेग बहादुर जी ने तुरंत पंडितों से कहा कि आप जाकर औरंगजेब से कह दें कि यदि गुरु तेग बहादुर ने इस्लाम धर्म ग्रहण कर लिया तो उनके बाद हम भी इस्लाम धर्म ग्रहण कर लेंगे और यदि आप गुरु तेग बहादुर जी से इस्लाम धारण नहीं करवा पाए तो हम भी इस्लाम धर्म धारण नहीं करेंगे'। औरंगजेब ने यह स्वीकार कर लिया।
                           

गुरु तेग बहादुर दिल्ली पहुंचे फिर स्वंय ही औरंगज़ेब के दरबार पहुंच गए। औरंगजेब ने उन्हें बहुत से लालच दिए, पर गुरु तेग बहादुर जी नहीं माने तो उन पर कई तरह के अत्याचार किए फिर भी वे नहीं झुके तो औरंगजेब ने उन्हें कैद कर लिया। उसके बाद भी बात नहीं बनीं तो उनके ही दो शिष्यों को मारकर गुरु तेग बहादुर जी को डराने की कोशिश की गयी, पर फिर भी वे नहीं डरें नाही मानें। उन्होंने औरंगजेब को समझाने की कोशिश भी की। उससे कहा- 'यदि तुम जबर्दस्ती लोगों को मुस्लिम बनाओगे, तो तुम सच्चे मुसलमान नहीं हो सकते हो क्योंकि इस्लाम धर्म यह शिक्षा नहीं देता कि किसी पर अत्याचार करके मुस्लिम बनाया जाए।'
बलिदान
ऐसी बात सुनकर औरंगजब को बहुत तेज गुस्सा आया उसने दिल्ली के चांदनी चौक पर गुरु तेग बहादुर जी का सिर काटने का हुक्म दे डाला और गुरु जी ने 24 नवम्बर 1675 को हंसते-हंसते बलिदान दे दिया। गुरु तेग बहादुरजी की याद में उनके 'शहीदी स्थल' पर गुरुद्वारा बना है, जिसका नाम गुरुद्वारा 'शीश गंज साहिब' है।
लेखन कार्य
गुरु तेग बहादुर जी को लिखने का बहुत शौक था। उनकी बहुत रचनाएं ग्रंथ साहब के महला 9 में संग्रहित हैं। उनके इस महािन बलिदान ने देश की 'सर्व धर्म सम भाव' की संस्कृति को सुदृढ़ बनाया। साथ ही सभी को धार्मिक, सांस्कृतिक, वैचारिक स्वतंत्रता के साथ जीवन जीने के लिए प्रेरित किया।


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